आज का गीता जीवन पथ
षष्ठम अध्याय
जय श्री कृष्णा.
जय श्री कृष्णा.
सबका भला हो !
(समर्पित है देश के अर्द्धसैनिक बलों एवं पुलिस के नाम,जिनकी सेवाओ से हम प्रेरित व सुरक्षित हैं)
सन्यासी/योगी वही होता है
अनाश्रित होता कर्मफल से
कर्म की गंगा अविरल बहती
न व्याकुल होता कर्मफल से
6/1
खुशियां आती,सन्तुष्टि मिलती,
अंग्नि का भी त्याग करें ,
संन्यासी केवल वे ही नहीं
क्रियाओं का परित्याग करें,
6/2
पार्थ! संन्यासी बही होता है
योग की धारा उनसे बहती
त्याग अपेक्षित न बस में जिनके,
योगी दुनिया नहीं मानती
6/3
मननशील इच्छा से युक्त
योगी बनना मन की चाह
निष्काम भाव से कर्म करें ,
ये सेतु बनती उनकी राह
6/4
योगी बनना राह पकड़ना,
संकल्पों का रहे अभाव ,
सेतु बनता कल्याण का मार्ग,
जीवन में आता कभी न ताव
6/5
योगारूठ पुरुष महान,
भोग इन्द्रिओं का दूर रहे
कर्मों में होती अनासक्ति
सकल्पों से भी दूर रहें
6/6
मनुष्य स्वयं है अपना मित्र ,
शत्रु स्वयं का भी रहता
उद्धार करे अपना स्वयं
भाव यही मन में रहता
6/7
मित्र आत्मा का भी वो,
इन्द्रीय मनं को जीता जिसने ,
वही शत्रु बन जाता है ,
हार मान ली इनसे जिसने
6/8
आत्मा का होता मिलन ,
परमात्मा का होता वास ,
शान्त सदा रहता हैं वो
जो सदा रखे प्रभु की आस
6/9
मान सम्मान का फर्क नहीं,
फर्क ना दुख के आने का
हर्ष-विषाद से ऊपर जो
फर्क नहीं सुख के जाने का
6/10
ज्ञान मिला है जिनको ,
परम तत्व को जान लिया ,
तन मन सब केन्द्रित हैं ,
दिल से उसने मान लिया
6/11
अन्त:करण है विकार रहित,
ज्ञान-विज्ञान से तृप्त ,
इन्द्रजीत कहते हैं उनको,
जीवन में रहता सदा संतृप्त ,
6/12
मिटटी,पत्थर,स्वर्ण समान ,
कभी करें न वो अभिमान,
भगवत प्राप्त योगी है वो ,
सब कुछ धरा पे धूल समान
6/13
श्रेष्ठ पुरुष धरा का वो,
सह्दय ,मित्र,वैरी ,उदासीन मध्यस्थ ,
बन्धु ,धर्मात्मा ,पापी भी ,
करे ना उनके मन को ध्वस्त
6/14
जीवन का सार है जान लिया ,
दो घड़ी का मेला यहाँ,
वो पल आने वाला है
जहां भी बांधे जहाँ शमां
6/15
कल दो पल के गीत यहाँ,
पल दो पल संगीत गूंजते ,
पल दो पल की एक कहानी,
पल दो पल दिन रात बीत ते
6/16
मानव का प्रभु मिलन ,
असान नहीं होता है ,
आशा इच्छा युक्त सदा ,
संग्रह वो करता रहता है
6/17
विपरीत
इसी के योगी हैं,
इन्द जीत बन जीवन जीते,
मन भी रहता सदा नियन्त्रित,
ईश-रस
वो पीते रहते
6/18
जब जब पैर पड़े सन्तन के,
पावन
पवित्र धरा बने ,
जीवन का मर्म समझते वो ,
परिष्कृत जीवन होता शनै:शनै:
6/19
साफ स्वच्छ वस्त्र बिछैं,
कुशा बढ़ाती भूमि का मान
ना नीचा,
ना हीं ऊंचा हो स्थान ,
सहयोग ध्यान कराता आसन
6/20
विराजमान रहते आसन पे,
इंद्रजीत व चित्त भी वश में
एकाग्र चित्त रहते कायम
मगन रहें योगाभ्यास में
6/21
परहित जीवन सदा बीतता
होते योगी म हान यहां
अन्त:करण भी शुद्ध होता,
स्वरूप बदलता अपना जहां
6/22
दिशा न दे खें बार-2,
दृष्टि
जमाते ना क पर ,
काया ,सिर ,गला एक समान
बाकी रखता ताक पर
6/23
स्थिर रहता योगी वो ,
काया रहती अचल
शान्त स्व -भाव से योग करे
रहती दूर स़ारी हलचल
6/24
बृह्मचर्य का व्रत रखे ,
भय भी डिगा नहीं सके,
अन्तःकरण
है शान्त उसका,
ना लोभ
भी उसको हिला सके
6/25
सावधान रहता है योगी ,
माया की है चंचलता ,
‘शान्त भाव से मुझमें लीन ,
केवल
मुझमें व्याकुलता’
6/26
मन पे जिसका वश चलता ,
आत्मा का परमात्मा से मिलन ,
परमानन्द की पराकाष्ठा ,
उपकृत होता तनमन
6/27
शान्त देह से रहता है ,
अन्दर बाहर मुझमें लीन ,
माया मोह ना डिगा सके
इतना खोया ,इतना तल्लीन
6/28
ममता को त्यागा जिसने ,
या थोड़ा सा खाता जो,
सोता
पैर पसारे,
या हर पल रहता जगता
6/29
पार्थ !सिद्धान्त योग से
परे सभी रहता है
सिद्ध
योगी न बन पाये
पीठ थोकता रहता है
6/30
योग की माया खुली चुनौती ,
नाश दुखों का करती है ,
यथा योग्य खाना, पीना ,सोना
कर्मों से हल करती हैं
6/31
माया अति बुरी बला है,
अर्जुन !तुम समझो सीधे अर्थों में,
“समय
पे जाग्रत ,कर्मों को करना “,
यही अर्थ निकलता शब्दों से
6/32
इसको कहना बहुत जरूरी,
अतिवश
में चित्त किया है वो,
मिली
प्रभु कृपा युग युग में,
स्पृहार
रहित भोगों में रहा है वो
6/33
आश्चर्य तुम्हें होगा ,पार्थ!,
वायु बिन दीपक न जलता है ,
यही हाल चित्त योगी का,
जब प्रभु मिलन न होता है
6/34
कुछ तो योगी कठोर तपस्या,
जिद
स्वभाव से करते हैं,
ध्यान
से बुद्धि,शुद्धि हुई जब,
रसपान प्रभु मिलन का करते हैं
6/35
खास घटित होता है ,!पार्थ
योग परिष्कृति करता बुद्धि
ध्यान मिलाता उसी अवस्था
करता तन मन की शुद्धि
6/36
आत्मा का परमात्मा मिलन !
विचलित उसको नहीं करता है ,
ध्यान मग्न सन्तोष साथ में,
अनूठा अनुभव करता है
6/37
जितेन्द्रिय बन जाता जो ,पार्थ!,
अति
सूक्ष्म बुद्धि को पाता है,
परिष्कृत
करता योग उसे,
खुला
रहस्य ! वो पाता है
6/38
ये करना या वो करना,
ये छूटा या वो छूटा,
ये रूठा या वो रूठा ,
कभी किसी से सम्बन्ध टूटा
6/39
इसे मना ओ उसे मनाओ ,
ये है आधा ,वो अधूरा ,
सन्तोष कभी ना मिल पाता !,
यही मनुष्य का नाता गहरा
6/40
जिसने पाया परमात्म सुख ,
सुख बाकी धूल-धसरित हुए,
इससे
बड़ी न कोई उपलब्धि ,
“जैसे प्रभु अबतरित हुए”
6/41
देख प्रभु क्या मांगो ,पार्थ!,
सारी मांगे पूर्ण किये,
हाथ
पकड़ उठायें भगवन
बाकी सुख यहां क्षीण हुए
6/42
सुख से फर्क नहीं पड़ता
दुख भारी भी क्षीण हुये
संसार संयोग से रहित योग
कर्तव्य बोध से पूर्ण हुये
6/43
योग -कर्तव्य बोध संसार में जीना ,
उकताना बस बन्द करो
उमंग चले धैर्य के साथ ,
कर्म करो बस कर्म करो
6/44
त्याग सभी वो कमजोरी
बस में करो कामना सारी
अभ्यास करो बस धीमें -2,
चले साधना तेरी प्यारी
6/45
धीमें -2 मुठ्ठी में ,पार्थ !,
सब कुछ आ जायेगा ,
चिन्तन होगा क्रेद्रित उसमें,
परमानन्द
गले लगायेगा
6/46
चंचल मन की चंचलता,
रोक
सभी न इनको पायें ,
इधर को जाता ,उधर कूदता
भ्रम
से इसके उबर न पायें
6/47
थाम लिया है पकड़ के इसको ,
वश में किया अति कठोर ,
होता ईशवर में केंद्रित
जाना-रूकता
चहुं ओर
6/48
जिसने किया मनको शान्त,
मन की
दूर सारी क्लान्त ,
मन की लगाम उसी के हाथ,
फर्क
नहीं कोई दे द्दष्टान्त
6/49
आसक्ति से दूर जितेन्द्रिय,
रजोगुण
भी रफूचक्कर ,
परमानन्द को पाता वो योगी ,
नहीं लगाता झूठे चक्कर
6/50
लाली देखन वो चला,
जित देखी तित लाल,
कवीरा जैसो बावरो,
दिखता
सब कुछ लाल
6/51
दुनिया कहती बाबरों,
आनन्द उसका समझ ना पाई,
परमानन्द ने उसे डुबोया ,
गुत्थी समझ ना आई
6/52
भाव जिसका एकाकी ,
सर्वव्यापी अनन्त चेतन में ,
दूर दृष्टि से देखे जगत
रहता वो समभाव में
6/53
भूत को जाने ,भविष्य को समझे ,
वही देखता बीत गया
करे कल्पना भाव उमडते,
जीवन को वो समझ गया
6/54
जिसने जाना मुझको
सर्वव्यापक सदा में स्थित
माध्यम बना; मुझे देखना
मुझसे होता सारा उपस्थित
6/55
अद्दृश्य नहीं वो मेरे,
लिए
अद्दृश्य नहीं मैं उनके लिए,
स्थित
हों वो मुझे देखते
सब कुछ पाता अपने लिए
6/66
स्थित प्रज्ञबनके योगी
सदा ध्यान मेंरहे तल्लीन
मुझको भजता ,मुझे बरतता
रहता योगी वो मुझमें लीन
6/67
पार्थ !सम है योगी सब भूतों में ,
सुख दुख में भी रहता सम
परम श्रेष्ठ वो योगी धरा पे
बने ना स्थित उनकी विषम
6/68
मन है चंचल ,मधुसूदन !,
समभाव नहीं रहता है
चंचलता है इतनी ज्यादा
स्थिति
नित्य बदलता है
6/69
चलायमान मन है चंचल ,
स्वभाव बदलता रहता है,
वश में
करना ;वायु रोकना
दुष्कर इसको जग कहता है
6/70
सच है अर्जुन है ,तेरा कहना
मन है
चंचल, चलता रहता है
अभ्यास
करो,वैराग्य भी आता
जीव के वश में रहता है
6/71
दृढ़, बलवान ,नेक, इरादे
संकल्प करो,मन को काबू
दिशा ना बदलो बार-2
सीमित होती इसकी खुशबू
6/72
मैं भी तुम्हें बताता ,पार्थ!,
मन पे
जिसकी नहीं लगाम
योग दुष्प्राप्य है उसको
कर ले चाहे प्रयत्न तमाम
6/73
मन को वश में जिसने किया,
जीवन
में अदभुत कर डाला
सब कुछ प्राप्त करे सहज
योग भी हाथ गले में डाला
6/74
प्रेक्षा की अर्जुन ने फिर ,
श्रद्धालू ,सयमी नहीं पुरुष
भटक गया है योग से दूर
ऐसा जीव भी !कौन स्वरूप?
6/75
धरा पे केवल तुम हो ,माधव!
जो मेरा
संशय तोड़ सके
नहीं दूसरा दुनिया में
मन को मेरे जान सके
6/76
नाश नहीं होता जग में
परलोक सुधर जाता है
आत्मों -द्वार किया जिसने
परम तत्व से मिल जाता है
7/77
दुर्गति रहती उससे दूर
कर्म सराहे उसके जाते
प्राप्त करें स्वर्गादि सुख
जब भी जहां से वे जाते,
7/78
निवास भी उनका मनेच्छा,
नित वे करते स्वयं सुधार
संस्कारित जीवन होता है
धरा
का करते वे उद्धार
7/79
वैराग्यवान पुरूष जहां में
जन्म
दुर्लभ वह पाता है
ज्ञानवान कुलश्रेष्ठ यहां
जग का उद्धार कर जाता है
7/80
बुद्धि संयोंग संस्कार ,
पूर्व जन्म में किये अर्जित ,
पुनः
प्रयत्न कठोर तप,
सदा
करें हम संचित,
7/81
योग सम्राट पुरूष जब ,
जन्म उत्तम कुल में लेता है,
पूर्व
प्रयत्न अभ्यास हैं उसके,
प्राप्त
परम तत्व से करता है
7/82
समबद्धि रूप जिज्ञासु,
देखा यह भी जाता है
समका्य कर्मों का उल्लघंन,
शास्त्रानुसार
न चल पाता है,
7/83
विपरीत इसी के वे योगी .
सदा प्रयत्न करते हैं
संस्कार जन्म जन्मान्तर;
वृद्धि सदा वे करते हैं
7/84
पाप
रहित वे हो जाते ,
भगवत्व वे प्राप्त करें
जीवन के मर्म का मतलब ,
आसानी से वे प्राप्त करें
7/85
चाहे तपस्वी शास्त्र-ज्ञानी ,
निष्काम कर्म जो करते
योगी सदा श्रेष्ठ रहता, पार्थ !
महान उसे सब कहते
7/86
योगी तुम भी बनो, पार्थ !
श्रद्धा संग भजता जो योगी
मन से भाव जुड़े हैं (उसके )मुझसे
अतिप्रिय बनता जुड़ता मुझसे
7/87
अध्याय समाप्त
मेरी विनती
कृपा तेरी काफी है ,प्रत्यक्ष प्रमाण मैं देता
जब-2 विपदा ने घेरा ,गिर ने कभी ना तू देता
साथ मेरे जो पाठ है करते ,कृपा बरसते रखना तू
हर विपदा से उन्है बचाना ,बस ध्यान में रखना कृष्ना तू
जब-2 विपदा ने घेरा ,गिर ने कभी ना तू देता
साथ मेरे जो पाठ है करते ,कृपा बरसते रखना तू
हर विपदा से उन्है बचाना ,बस ध्यान में रखना कृष्ना तू
निपट निरक्षर अज्ञानी है हम ,किससे, क्या लेना, क्या देना I
कृपा बनाये रखना, कृष्णा, शरणागत बस अपनी लेना II
(अर्चना व राज)
कृपा बनाये रखना, कृष्णा, शरणागत बस अपनी लेना II
(अर्चना व राज)
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