अर्जुन, क्षत्रिय
हो तुम!,
भाग युद्ध से न जाओ',
धिक्कारेगी दुनिया
सारी ,
माँ का दूध नहीं
लजाओं.I117I
धर्मयुद्ध छिड़ा
है अब,
भाग्यवान बने हो
तु म,
सौभाग्य मिला है
तुमको ,
भय से कहाँ जाते
हो तु मI118I
धर्मयुद्ध से मुँह
मोड़ना ,
कीर्ति साथ नहीं
देगी ,
स्वर्ग का द्वार
दूर रहेगा ,
अपकीर्ति सदा तुम्हें
मिलेगी I119I
सदियों तक अपकीर्ति
का भागी,
शर्मनाक है बात यहाँ
,
इससे बेहतर मर जाना,
अप कथन कहेगा सारा
जहाँ I1120I
सम्मान मिला लोगों से ,
लघुता तेरा हरण करेगी ,
भय के कारन अर्जुन !,
अपकीर्ति तेरा वरण करेगी I121I
क्षमता हीन, डरपोक,बुरा ,
अपयश शब्द नहीं रूकेगें ,
इससे बड़ा दुःख क्या ?,
लोगों की नजर में हम गिरेगें I122I
मृत्यु वरण कर लेगी,
स्वर्ग में तेरा स्वागत है ,
जीत मिली संग्राम में ,
धरा पे लेा तेरा स्वागत है I123I
लाभ ,हानि ,जीवन ,मरण ,
यश, अपयश समान समझ ,
सुख- दुख ,जय -पराजय ,
असमान नहीं इन्हें समझI124I
कृष्ण ने कहा अर्जुन
से !,
त्यागो भय ,देर ना
कर,
महान योद्धा इस धरा
का तू ,
तैयार रहो युद्ध
करI125I
“आज का कर्म भाग्य है कल “
ज्ञान मिला है तुमको
,
जा कर्म में परिवर्तित
कर,
त्याग स्भी बन्धन अब,
तैयार रहो युद्ध
कर I126I
बुद्धि हीन है पुरुष वे,
मीठी वाणी से कहते ,
वे क्या रक्षा कर
पायगे ,
भोग विलास में डूबे
रहते I127I
अहंकार का प्रर्दशन ,
ऐश्वर्य ,कामना ,कमजोरी
,
बुद्धिहीन वे कर्महीन
,
जीवन जैसे किताब
है कोरी I128I
अप्राप्ति का प्राप्ति
योग ,
प्राप्ति की रक्षा
क्षेम कहें
,आसक्ति-हीन ,द्वन्दरहित
,
वेदों की वाणी यही
कहें I129I
योग बने साध्य तेरा ,
साधन इसके क्षमा योग्य!
कर्तव्य निभा ,प्रभुता
पा ,
उत्तम ,सर्वोत्तम
,योग धारण:योग्य! I130I
वर्षा होती, जल भरता!
,
पोखर जा सागर से
मिले,
बनता ज्ञान का सागर
विशाल ,
अथाह ज्ञान की लहर
चले I131I
तेरा नाता कर्म से है,
फल का मिलना भी तय्
हैं,
जैंसा तेरा कर्म रहेगा ,
अनुरूप उसी के मिलना
भी तय् हैं: I132I
फ़ल् की इच्छा नहीं करो,
फ़ल् की पहुँच हाथ से दूर,
आज का कर्म भाग्य
है कल ,
मिलता सदा ना जाता
दूर I133I
कर्म करें, सोचें जीत ,
जीत हार का वियोग
यहाँ ,
हार सोचते जीत मिले,
हार का हार संयोग
यहाँI134I
अर्जुन,
उठों धनुष को तान ,
धर्मयुद्ध का रख
तू मान ,
अधर्म का अंश मिटेगा,
हिम्मत कर ,तू इसको जान I135I
कंरु ना कंरू के
फेरे में ,
उलझ ना तू गिर जायेगा
,
निर्णय तेरा मुशिकल
होगा,
अधर्म धरा
पे रह जायेगा I136I
सोचो ! देखो! युद्ध
यहाँ,
मान सम्मान जिन्होंने
पाया,
कुछ तो अधर्म जो
मिले,
अंधेरा तन मन पे
छायाI137I
सम बुद्धि युक्त
पुरूष बनो ,
पाप पुन्य को अब,
त्यागो ,अर्जुन !,
समत्व स्वरूप है
कर्मकुशलता,
कर्म बन्धन से जागो ,अर्जुन !I138I
समबुद्धि वाले पुरूष
यहां,
बड़े वें भी ज्ञानी
है ,
फ्लेच्छा -विहीन
हैं. वे ,
पर हम सब अज्ञानी
हैं I139I
जिस दिन दलदल मोह
रूप ,
अर्जुन !तुमने पार
किया ,
लोक परलोक के भोगों
से ,
समझो अपना उद्धार
कियाI140I
वैराग्य मिलेगा,
तुम को अर्जुन !,
निर्विकार परम पद
को पाओगे ,
जीवन का मर्म मुठ्ठी
में ,
तारण स्वयं को कर
जाओगेI141I
शेष कल
निपट निरक्षर अज्ञानी है हम ,किससे, क्या लेना, क्या देना I
कृपा बनाये रखना, कृष्णा, शरणागत बस अपनी लेना II
(अर्चना व राज)
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