गीता पाठ-III
पापी को हद में रखना,
अर्जुन !कन्धौ पे तेरे भार है,
अधर्म मिटा सका सका ना तू ,
जीना तेरा धिक्कार हैंn I79I
ना कोई तेरा इस जहां में ,
अल्प समय का फेरा है,
अपना कार्य पूर्ण करो तुम ,
ये फेरी वाला डेरा है I80I
किस कारन ये मोह हुआ ,
समझ से मेरी बाहर है ,
रण क्षेत्र में इसी समय,
श्रेस्थ व्यवहार से बाहर है I81I
समय का समय पे ध्यान ,
बखां महापुरुष करते है,
धर्म की रक्षा हेतु ,
योद्धा युध क्षेत्र में जाते है I82I
इसी तरह से सोते रहोगे ,
देश धर्म सब खोते रहोगे ,
डर है तेरी कायरता ,
पार्थ I कब इसको समझोगे I83I
त्याग हृदय की दुर्बलता ,
गांडीव उठा ! तू आगे बढ़,
ना मर्दो का व्यवहार ना हो ,
चल युध क्षेत्र में आगे बढ़ I84I
हे
माधव ! मन में संताप,
हद से
बाहर जाता है,
गुरुदेव ,तात श्री ,पूजनीय,
अटूट मेरा नाता हैI85I
भीख
माँगना है मंजूर,
खून
हाथ से नहीं सने ,
अपनौ को मौत सुलाकर,
(क्यों) भोग विलाषी हम बने I86I
आने
वाला पल कैसा होगा,
मुझको ये तो ज्ञात नहीं ,
वे
जीतेंगे, हम जीतेंगे,
सुब
कुछ है अज्ञात यहीं I87I
माधव ! मैं हूँ शिष्य आपका,
ज्ञान की भिक्षा दिल
से चाहता,
कलयाणकारी जो भी होगा,
मन से उसको करना चाहता I88I
हरा
भरा हो राज्य मेरा,
धनधान्य भरे भाण्डर रहें,
देवो जैसा शासन हो,
अविरल सुख की धारा बहेI89I
मन की
शांति कोसों दूर,
भला
क्या मैं लड पायूँगा,
नहीं चाहिए मुझको कुछ,
अपनौ को सब दे जायूँगा I90I
अर्जुन
इतना ना भोला बन ,
सीख
जरा विद्वानों से ,
जो
चले गये या जाने को हैं ,
शोक
दूर रहे विद्वानों से I91I
सत्य
यही है ,अर्जुन
सदा
रहा आसितत्व मेरा,
समय
बदलता युग बीते ,
बदला नाआसितत्व मेरा I92I
मोह
शरीर का कभी ना करना,
शरीर बदलते रूप बदलते ,
आत्मा
,अजर ,अमर ,मौजूद सदा ,
जीवन
मिलता जब हम मरते I93I
तू क्या जाने ,तू क्या समझे ,
कितने
जीवन तूने जिए ,
राजा हो रंक यहां ,
जीवन
भोगे जन्म लिए I94I
बालपन
के सुनहरे पल ,
नींद
सुहानी लाये जवानी,
वृद्धावस्था
पार किऐ,
मौत
लिखती नई कहानी I95I
सुख
दुख इस जहां में ,
विषय
संयोग भी रहते हैं ,
सृष्टि
से जुड़े विषय- विषयानतर,
सहन
सभी हम करते हैं I96I
मोक्ष
योग्य वे पुरुष यहां,
समान झ्हें वे जानते ,
परछाई
से व्याकुलता न ,
मन
से इनको मानते I97I
अर्जुन
!व्याकुल तेरा मन,
व्यथित
रही तेरी मानवता ,
सबकुछ
अपना दिखता है ,
नहीं
किसी से दिल में कटुता I98I
र्निविकार
मेरा जैसा बन जाओ,
जिसमें
दुनिया तेरी समाय ,
सशंय
को स्थान नही ,
(सबकुछ
जिसमें तेरा हो )
सुख
दुख एक समान ही जाय I99I
दुर्योधन
जैसा बन जाओ ,
लड़ता
उस को रस मिलता ,
सही
गलत को जाने वो ,
(पर )झूठ गलत में आनन्द मिलता I100I
क्या
उसके अपने रण क्षेत्र नहीं आये,
इन्तजार
करता युद्ध शुरू होना ,
जीत
मिलेगी राज करेगा ,
किस
के िलए, क्यों रोना? I101I
मानव
हो तुम !पार्थ,
सेतु बन के सम्बन्ध निभाते ,
मन
का संशय: युद्ध करो
या
भाग क्यों नहीं जाते I102I
शेष कल
निपट निरक्षर अज्ञानी है हम ,किससे, क्या लेना,
क्या देना I
कृपा बनाये रखना, कृष्णा, शरणागत बस अपनी लेना
II
(अर्चना व राज)
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